15 अगस्त — वह दिन, जब लाल किले की प्राचीर से तिरंगा लहराकर देश को आज़ादी की कीमत और महत्ता का अहसास कराया जाता है। यह दिन हमें उन अनगिनत बलिदानों की याद दिलाता है, जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर हमें अंग्रेज़ी हुकूमत की बेड़ियों से मुक्त कराया।

लेकिन आज, 78 साल बाद, सवाल यह है कि क्या हमारे किसान, जवान और पत्रकार जो लोकतंत्र की रीढ़ कहे जाते हैं क्या सचमुच में आज़ाद हैं?

किसान: पेट पालने वाला खुद भूखा—

देश का किसान अन्नदाता कहलाता है, लेकिन उसकी स्थिति देखकर यह उपाधि एक विडंबना बन गई है। खेत में मेहनत करने वाला किसान कर्ज के बोझ तले दबकर आत्महत्या कर रहा है। महंगाई, अनियमित मौसम, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गारंटी न मिलना और बिचौलियों के शिकंजे ने उसे आर्थिक गुलामी में जकड़ रखा है। वह जिस अन्न को उगाता है, वही अपने घर की थाली में भरने के लिए संघर्ष करता है। स्वतंत्रता का अर्थ उसके लिए अभी भी सिर्फ सपनों में ही है।
जवान: सीमा पर बलिदान, भीतर उपेक्षा—-

हमारे जवान सीमा पर 50 डिग्री की गर्मी और माइनस तापमान की सर्दी झेलते हुए देश की सुरक्षा में लगे रहते हैं। वे आतंकवाद, घुसपैठ और दुश्मन की गोलियों का सामना करते हैं लेकिन जब बात उनके अधिकारों, आधुनिक हथियारों, सुविधाओं और परिवार की देखभाल की आती है, तो व्यवस्थाएं सुस्त पड़ जाती हैं। रिटायरमेंट के बाद पेंशन, पुनर्वास और स्वास्थ्य सेवाओं में मिलने वाली उपेक्षा यह बताती है कि उनकी बलिदानी भूमिका का मूल्य हम शब्दों में तो चुकाते हैं, लेकिन कर्मों में नहीं।
पत्रकार: लोकतंत्र की सांस घुटती हुई

लोकतंत्र का चौथा स्तंभ—पत्रकारिता—आज सबसे नाज़ुक मोड़ पर खड़ी है। सच दिखाने वाले पत्रकारों पर मुकदमे, धमकियां और हमले आम हो गए हैं। कई बार सत्ता, पूंजी और विज्ञापन की ताकत के आगे सच्चाई दब जाती है। जो कलम कभी आज़ादी की लड़ाई में हथियार बनी, वह आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खुद जंग लड़ रही है। अगर पत्रकारिता की आवाज़ दबा दी गई, तो लोकतंत्र की सांस घुट जाएगी।

निष्कर्ष:
स्वतंत्रता केवल विदेशी शासन से मुक्ति का नाम नहीं है, बल्कि यह हर नागरिक के सम्मान, अधिकार और न्याय की गारंटी है। जब तक किसान के चेहरे पर मुस्कान, जवान के जीवन में सम्मान, और पत्रकार के हाथ में बेखौफ कलम नहीं होगी, तब तक यह आज़ादी अधूरी है। स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराना और गाना गाना पर्याप्त नहीं है। जब तक किसानों को उनकी उपज का सही दाम नहीं मिलेगा, जब तक जवानों को उचित सुविधाएँ नहीं मिलेंगी और जब तक पत्रकार बिना डर के सच नहीं बोल पाएँगे, तब तक आज़ादी अधूरी है। हमें सिर्फ स्वतंत्रता दिवस नहीं, बल्कि स्वतंत्रता के मूल्यों को बचाने की ज़रूरत है।

इस स्वतंत्रता दिवस पर हमें केवल झंडा फहराने और भाषण देने तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि यह प्रण लेना चाहिए कि हम इन तीनों स्तंभों के अधिकारों की रक्षा करेंगे, ताकि आने वाली पीढ़ियां गर्व से कह सकें—”हम सचमुच में आज़ाद हैं।”
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