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गणेश चतुर्थी का चंद्र देखना, झूठा कलंक लगना और संम्यंतक मनि कथा से उस दोष का निवारण

गणेश चतुर्थी का चंद्र देखना, झूठा कलंक लगना और संम्यंतक मनि कथा से उस दोष का निवारण

माना जाता हैं कि गणेश चतुर्थी के दिन चंद्र दर्शन नहीं करने चाहिए। उस दिन उसे देखने से देखनेवाले पर झूठे कलंक लगते हैं। किसी प्रकार के झगड़े होते हैं या किसी तरह की समस्याएं आती हैं। गणेश चतुर्थी के दिन चंद्र जल्दी अस्त होता हैं, विविध प्रदेशों के अनुसार अलग-अलग समय होगा, पर साधारणतः रात को 9 से 10 बजे तक चंद्र अस्त होता हैं। ऐसा मानते हैं की इसके बाद गणपति के दर्शन करने चाहिए।

कुछ लोग ‘सिंहाः प्रसेनमवदत्’ जैसे मंत्र का जाप करने की सलाह भी देते हैं।

इस दोष के निवारणार्थ संम्यंतक मणि की कथा पढ़ने और सुनने का उपाय भी बताया जाता हैं। 

संम्यंतक मणि की कथा अति संक्षिप्त में कुछ इस प्रकार हैं-

संम्यंतक मणि सूर्य के समान प्रकाशमान मानी जाती हैं। कुछ लोग कोहिनूर हीरे को ही संम्यंतक मणि मानते हैं पर इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं।

इसकी कथा कुछ इस प्रकार हैं कि सत्रजित सूर्य के परममित्र थे। उन्होंने सूर्य को प्रसन्न करके उनसे संम्यंतक मणि प्राप्त की थी। उस प्राप्त मणि को उन्होंने अपने प्रिय भाई प्रसेनजित को दिया था। एक बार श्रीकृष्ण ने प्रसेनजित से वह मणि माँगी पर उसने देने से इंकार कर दिया।

एक दिन प्रसेनजित उस मणि को पहनकर शिकार खेलने गये। वहाँ एक सिंह ने उस मणि के लिए उन्हें मार दिया और मणि को मुँह में दबाकर भागने लगा। सिंह को मणि के साथ भागते देख जांबवान ने उसे मार दिया और मणि लेकर अपनी गुफा में चला गया।

च्युकी कृष्ण ने संम्यंतक मणि प्रसेनजित से माँगी थी इसलिए सबको यह लगा के उन्होंने ही मणि पाने के लिए प्रसेनजित को मार डाला हैं। अपना कलंक मिटाने के लिए कृष्ण प्रसेनजित को ढूंढने के लिए विंध्य पर्वत चले गये, वहाँ उन्हें प्रसेनजित और उनका घोड़ा मरा पड़ा मिला।

(विंध्य पर्वतमाला भारत के मध्य भाग में स्थित एक लंबी, टूटी-फूटी पर्वत श्रृंखला है, जो पश्चिम में गुजरात से शुरू होकर पूर्व में बिहार तक फैली है और यह उत्तर भारत को दक्षिण भारत से अलग करती है, यह मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और बिहार राज्यों में फैली हुई है, और इसे पारंपरिक रूप से उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक प्राकृतिक सीमा माना जाता है।)

जहाँ प्रसेनजित और उसका घोड़ा मरा पड़ा था, वहाँ संम्यंतक मणि नहीं था इसलिए कृष्ण ने खोज जारी रखी। आगे कुछ दूरी पर रुक्ष द्वारा मारे गये सिंह का मृत शरीर दिखाई पड़ा। रुक्ष के पैरों के निशानों का पीछा करते हुए कृष्ण जांबवान की गुफा तक पहुँचे।

गुफा के मुख पर ही धायी द्वारा पालने में झूलते बच्चे से बात करते हुए संम्यंतक मणि का उल्लेख उन्हें सुनाई पड़ा। उसकी बातें सुनकर कृष्ण ने बलराम सहित अन्य यादवों को वहीं गुफा के बाहर रुकाया और खुद जांबवान से लड़ने गुफा के अंदर गये।

इक्कीस दिनों तक कृष्ण और जांबवान का बाहुयुद्ध चलता रहा। इस दौरान बलराम को लगा के कृष्ण जांबवान के हाथों मारे गये इसलिए वें यादवों सहित द्वारका लौट गये।

कृष्ण ने जांबवान को युद्ध में हरा दिया। हारे हुये जांबवान ने कृष्ण से अनुरोध किया के वह उनकी कन्या को स्वीकार करे। कृष्ण ने उनकी कन्या का स्वीकार किया और अपनी सफाई देने के लिए संम्यंतक मणि भी उससे ले ली।

यादवों की भरी सभा में कृष्ण ने वह मणि सत्राजित को दे दी और खुद पर लगे झूठे आरोप को मिटा दिया। मणि पाकर सत्राजित ने अपनी कन्या सत्यभामा का विवाह कृष्ण से करा दिया।

आगे सत्राजित से उस मणि का फिर से शतधन्वा ने अपहरण कर लिया। सत्राजित को मारकर वह मणि शतधन्वा ने अक्रूर को दी और उससे वचन लिया के मणि संबंध में उसका नाम किसी को न बताया जाये।

सत्यभामा ने यह बात कृष्ण को बतायी तब कृष्ण ने बलराम को शतधन्वा को मारकर उस मणि को हासिल करने की बिनती की। खुद कृष्ण ने भागते हुए शतधन्वा का पीछा करके उसे मार डाला पर मणि उसके पास नहीं थी।

कुछ दिनों बाद अक्रूर द्वारका में आये तब कृष्ण ने अपनी योगशक्ति द्वारा यह जान लिया के संम्यंतक मणि अक्रूर के पास हैं। उन्होंने भरी सभा में अक्रूर को कहा के मणि आपके पास हैं, आप उसे मुझे दे दीजिए। भरी यादव सभा में यह बात सुनकर अक्रूर ने मणि कृष्ण को दे दी। लेकिन अक्रूर ने सहजता से मणि दे दी इस बात से प्रसन्न होकर कृष्ण ने वह संम्यंतक मणि फिर से अक्रूर को लौटा दी।

कृष्ण द्वारा दुबारा मिली उस मणि को गले में धारण करके अक्रूर सूर्य की भाँति प्रकाशित हो गये। संम्यंतक मणि सूर्य ने खुद सत्राजित को प्रदान की थी, उसमें सूर्य का तेज था इसलिए जो भी उस मणि को पहनता वह सूर्य की तरह चमकने लगता।

इस भाग में इतना ही।

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