गुजारा भत्ता निर्धारित करने के लिए केवल पक्षकारों के वेतन पैकेज को नहीं देख सकते: इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट केस टाइटल- किरण गुप्ता एवं अन्य बनाम रामजी गुप्ता

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि गुजारा भत्ता निर्धारित करने के लिए केवल वेतन पैकेज पर विचार नहीं किया जाना चाहिए। गुजारा भत्ता राशि निर्धारित करते समय विवाह की अवधि, अलगाव की अवधि, पक्षों का पुनर्विवाह और आगे की वित्तीय ज़िम्मेदारियों जैसी अन्य परिस्थितियों पर भी विचार किया जाना चाहिए।

जस्टिस सौमित्र दयाल सिंह और जस्टिस डोनाडी रमेश की खंडपीठ ने कहा, “सभी मानवीय ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पैसा हमेशा कम पड़ सकता है। न्यायालय गुजारा भत्ता की राशि निर्धारित करने के लिए केवल पक्षों के वेतन पैकेज को नहीं देख सकते।”

दोनों पक्षों की शादी 1993 में हुई और 1994 में उनकी एक बेटी हुई। दोनों पक्ष 1994 से अलग-अलग रह रहे थे। 1995 में अपीलकर्ता-पत्नी और बेटी को धारा 125 सीआरपीसी के तहत भरण-पोषण के रूप में 500 रुपये दिए गए थे। 2000 में भरण-पोषण की राशि को संशोधित कर 1000 रुपये कर दिया गया था। समझौता कार्यवाही में 2011 में आदेश पारित किया गया, जिसमें यह दर्ज किया गया कि अपीलकर्ता को 25000 रुपये का भुगतान किया गया और अगले दिन प्रतिवादी-पति द्वारा 13000 रुपये का भुगतान किया जाएगा।

तलाक मंजूर हो चुका है और 1999 में हाईकोर्ट द्वारा इसे बरकरार रखा गया, इसलिए प्रिंसिपल जज फैमिली कोर्ट, कानपुर नगर ने 38,000 रुपये (समझौते के दौरान पहले से भुगतान की गई राशि) की कटौती के साथ 1,40,000 रुपये का एकमुश्त गुजारा भत्ता देने का आदेश पारित किया। पत्नी ने फैमिली कोर्ट के इस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी।

न्यायालय ने पाया कि पत्नी निजी ट्यूशन शिक्षिका थी, जबकि पति जिला न्यायालय में क्लर्क था। यह पाया गया कि प्रतिवादी-पति ने दूसरी शादी कर ली थी। दूसरी शादी से उसके 3 बच्चे है तथा वह अपने भाई-बहनों की देखभाल के लिए भी जिम्मेदार थी, जिन्हें विशेष देखभाल की आवश्यकता थी।

यह देखते हुए कि दोनों पक्ष बहुत कम समय तक एक साथ रहे थे तथा पति ने दूसरी शादी कर ली थी । उस पर अन्य वित्तीय जिम्मेदारियां थीं। न्यायालय ने माना कि फैमिली कोर्ट द्वारा दिए गए गुजारा भत्ते में हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए।

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